Friday, October 10, 2014

मैं मस्ती के संग बहती हूँ

भागती हुई नदी से पूछा मैंने --

क्यों  अपना अस्तित्व मिटाती हो ?
जब देखो सागर से मिलने वेवजह चली जाती हो 
आँखों में गहरा राज़ लिए नदी मुस्कुराई 
प्रकृति की विचित्रताएं भला आज तक किसी को समझ में आई ?
सागर से मिलकर मैं अपना भार हल्का कर  आती हूँ 
बनी रहूँ नदी हमेशा इसीलिए चली जाती हूँ 
जाकर सागर मैं अपना अस्तित्व सुरक्षित कर आती हूँ 
भागकर मिलती उससे पर उड़कर चली आती हूँ 
ताल-तलैया -दरिया सभी को प्यार का राग सिखाती हूँ 
भूले -भटके राहगीरों के प्यास की आग बुझाती हूँ 
अनजाने -पथ पर चल कर मैं गीत मिलन के गाती हूँ 
हूँ अकेली कहने को पर-- साथ सभी के रहती हूँ 
कल-कल निनाद करते-करते मैं ----
मस्ती के संग  बहती हूँ --मैं मस्ती के संग  बहती हूँ।