अहिल्या-सहगामिनी होने के नाते
पति की इच्छा का सम्मान करना
तुम्हारा धर्म था
पर उनमें आये
अनायास परिवर्तन को
पहचानना भी तो
तुम्हारा कर्म था
कठपुतली न बन
अपने विवेक का
किया होता उपयोग
अपने आसपास
घटी घटनाओं का
रखा होता ध्यान
तो असली-नकली
सही-गलत की
शीघ्र हो जाती पहचान
गौतम ऋषि की कुटिया
न पडी होती यूँ सुनसान औ विरान
न हीं पत्थर की प्रतिमा बन
पल-पल करना पडता
व्यथा और ग्लानी का
पति से वियोग का
असहनीय अपमान का
सदियों तक विषपान।
मेरी बहुत पुरानी रचना । मन में आये भावों को लिख लेती हूँ। मुझे ऐसा लगता है कुछ पौराणिक बातें प्रतीक है जो हमारी सभ्यता एवं संस्कृति को निखारने का काम करती है.सभी मेरे विचारों से सहमत हो आवश्यक नहीं।इस रचना के माध्यम से मैं ये कहना चाहती हूँ की अगर शरीर में आये परिवर्तन को महसूस करें तो बीमारी का उचित समय में इलाज़ कराया जा सकता है और पति -पत्नी एक दूसरे के स्वभाव में आये परिवर्तन को महसूस करे तो परिवार को बिखरने से रोका जा सकता है। । किसी की कमियों को रेखांकित करना मेरा उद्देश्य नहीं है। कृपया रचना के मूलभाव को समझने का प्रयास करें। धन्यवाद।
सार्थक सन्देश , सुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद मोनिका जी.
Deleteसार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (21-02-2015) को "ब्लागर होने का प्रमाणपत्र" (चर्चा अंक-1896) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत धन्यवाद शास्त्री जी ...
ReplyDeleteएक द्ष्टिकोण यह भी..अच्छा है
ReplyDeleteसमय से प्रश्न करती भावपूर्ण रचना ...
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