भागती हुई नदी से पूछा मैंने --
क्यों अपना अस्तित्व मिटाती हो ?
जब देखो सागर से मिलने वेवजह चली जाती हो
आँखों में गहरा राज़ लिए नदी मुस्कुराई
प्रकृति की विचित्रताएं भला आज तक किसी को समझ में आई ?
सागर से मिलकर मैं अपना भार हल्का कर आती हूँ
बनी रहूँ नदी हमेशा इसीलिए चली जाती हूँ
जाकर सागर मैं अपना अस्तित्व सुरक्षित कर आती हूँ
भागकर मिलती उससे पर उड़कर चली आती हूँ
ताल-तलैया -दरिया सभी को प्यार का राग सिखाती हूँ
भूले -भटके राहगीरों के प्यास की आग बुझाती हूँ
अनजाने -पथ पर चल कर मैं गीत मिलन के गाती हूँ
हूँ अकेली कहने को पर-- साथ सभी के रहती हूँ
कल-कल निनाद करते-करते मैं ----
मस्ती के संग बहती हूँ --मैं मस्ती के संग बहती हूँ।
क्यों अपना अस्तित्व मिटाती हो ?
जब देखो सागर से मिलने वेवजह चली जाती हो
आँखों में गहरा राज़ लिए नदी मुस्कुराई
प्रकृति की विचित्रताएं भला आज तक किसी को समझ में आई ?
सागर से मिलकर मैं अपना भार हल्का कर आती हूँ
बनी रहूँ नदी हमेशा इसीलिए चली जाती हूँ
जाकर सागर मैं अपना अस्तित्व सुरक्षित कर आती हूँ
भागकर मिलती उससे पर उड़कर चली आती हूँ
ताल-तलैया -दरिया सभी को प्यार का राग सिखाती हूँ
भूले -भटके राहगीरों के प्यास की आग बुझाती हूँ
अनजाने -पथ पर चल कर मैं गीत मिलन के गाती हूँ
हूँ अकेली कहने को पर-- साथ सभी के रहती हूँ
कल-कल निनाद करते-करते मैं ----
मस्ती के संग बहती हूँ --मैं मस्ती के संग बहती हूँ।
प्रश्नोत्तर सहित सुन्दर कविता ।
ReplyDeleteनदि और सागर के प्रेम की रहिस्यमय पंक्तियाँ
ReplyDeleteअतिसुन्दर और मन को भाने वाली अनुभुति
आभार
मेरी कुछ पंक्तियाँ जब भी आती मुसिबत अक्सर करते हैँ माँ को याद पढ़े और अपनी राय देँ।
धन्यवाद शास्त्री जी ...
ReplyDeleteआखिर एक नदी का स्मपुर्ण समपर्पण अपने सागर के लिए ही तो है, बास संग चलते पथिकों का कुछ समय साथ मिल जाता है. अत्यंत सुन्दर कविता :)
ReplyDeleteधन्यवाद यशवंत जी ....
ReplyDeleteSunder prastuti ...dhanywad !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव लिए प्रस्तुति |
ReplyDeleteआशा
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ...अच्छी रचना
ReplyDeleteआप मेरे ब्लॉग पर आमंत्रित हैं. :)
बहुत सुन्दर भावाभिवाक्ति !
ReplyDeleteसाजन नखलिस्तान
बहुत सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति !
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