न जाने क्यों ?
पता नहीं क्या बात थी
वो हमारी पहली और अंतिम मुलाकात थी
हम कुछ वक्त एक दूसरे के साथ रहे
कुछ उनकी सुनी
कुछ अपनी सुनाई
बिछुड़ते वक्त वो थीं -----एक तरफ खड़ी
अचानक मेरे गले से आ लगीं,… फिर ----
न जाने क्यों ?
उनकी आँखें छलक पड़ीं
बरसों बाद कोई औरत मुझे
मेरी माँ जैसी लगीं
न जाने क्यों ?
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज सोमवार (26-08-2013) को सुनो गुज़ारिश बाँकेबिहारी :चर्चामंच 1349में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
wah...
ReplyDeleteनिस्स्वार्थ प्रेम का मानवीय रूप है यह प्रेम मिलन।
ReplyDeleteनिस्स्वार्थ प्रेम का मानवीय रूप है मूर्तन है यह प्रेम मिलन।
ReplyDeleteन जाने क्यों ?
पता नहीं क्या बात थी
वो हमारी पहली और अंतिम मुलाकात थी
हम कुछ वक्त एक दूसरे के साथ रहे
कुछ उनकी सुनी
कुछ अपनी सुनाई
बिछुड़ते वक्त वो थीं -----एक तरफ खड़ी
अचानक मेरे गले से आ लगीं,… फिर ----
न जाने क्यों ?
उनकी आँखें छलक पड़ीं
बरसों बाद कोई औरत मुझे
मेरी माँ जैसी लगीं
न जाने क्यों ?
ऐसे में बेहद पिछले जन्म का कुछ नाता तो अवश्य रहता है .... सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत ही गहन और प्रेम में पगी रचना.
ReplyDeleteरामराम.
भावभरी प्रस्तुति!
ReplyDeletesundar bhav ...........shayad prem ka yah rup apnapan hai............
ReplyDeleteशुक्रिया आपकी टिपपणी का।
ReplyDeletethanks to all ....
ReplyDeleteमार्मिक बिछोड़ा जीवन का। शुक्रिया आपकी टिपण्णी का।
ReplyDeleteऐसा भी होता है कभी कभी बहुत मार्मिक प्रस्तुति ।
ReplyDelete