खुश रहो आबाद रहो
सदा कामना करुँगी
तुम्हारी बददिमागी का
सामना करुँगी ----
साज़िश कर जो चक्रव्यूह
तुमने रचा ----उसे ---
अपने बुलंद इरादों से
तोड़ दिया है ---
वो राह जो पहुँचती थी
तुम तक --उसे मैंने
कब का ----
छोड़ दिया है !
पद्मिनी टाइम्स में प्रकाशित मेरी एक रचना।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (04-12-2015) को "कौन से शब्द चाहियें" (चर्चा अंक- 2180) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद शास्त्री जी ...
DeleteBahut Sundar rachana, madam!
ReplyDeleteमनोबल बढ़ाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद सर ...
ReplyDeleteअपनी सामर्थ्य का भान होते ही निर्णय आसान हो जाते हैं और उन पर अमल के लिये मन स्थिरता पा लेता है - सचेत रचना !
ReplyDeleteबिलकुल सही कहा आपने प्रतिभा जी ...भले ही उस निर्णय के क्रम में काफी कष्ट उठाना पड़ता है पर हाँ या ना का फैसला करना ही पड़ता है वो फैसला जो प्रत्यक्ष रूप से जिंदगी से जुड़ा हुआ हो --
ReplyDeleteसार्थक रचना, बधाई.
ReplyDeleteडॉ निशा जी आपकी यह रचना बेहद सुन्दर व सजग है.....आप अपनी रचनाओं में एक लक्ष्य कि ओर इंगित करते हुए वर्णन करती है.....ऐसी ही रचनाएं अब आप शब्दनगरी पर भी प्रकाशित कर सकतीं हैं.....
ReplyDeleteडॉ निशा जी आपकी यह रचना बेहद सुन्दर व सजग है.....आप अपनी रचनाओं में एक लक्ष्य कि ओर इंगित करते हुए वर्णन करती है.....ऐसी ही रचनाएं अब आप शब्दनगरी पर भी प्रकाशित कर सकतीं हैं.....
ReplyDeletedhanyavad shubham jee ....
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