अंतत:
चूल्हे में सुलग रही लकड़ी से
पासवाली लकड़ी बोली ....
क्यों .....सुलग रही हो बहना ?
बेहिचक तुम बोलो ....
गैर नहीं, हूँ अपनी .....भेद दिल के खोलो .....
सुलगती हुई लकड़ी तब ...धीरे से बोली ..
ये मत सोचना कि धुओं और ..चूल्हों के बीच
पहचान मेरी खो गई है ...
सच तो यही है बहना कि ...
मेरी यात्रा ..अंतत:पूरी हो गई है ......
विषम परिस्थितियों में भी मैं ..
.कभी नहीं हारी ....
कर लो हिम्मत तुम भी ..
आएगी तेरी भी बारी .....
बनते हीं ज्वाला दसों दिशाएं
मुझसे मिल रहीं हैं ....
सुलग-सुलग कर आखिर ...
मेरी मंजिल मुझको मिल गई है ...
मंजिल मुझको मिल गई है .....
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर
बहुत ही सुन्दर बेहतरीन रचना.
ReplyDeleteअनुपम भाव संयोजन ... बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाव छिपे है आपकी रचना में ......
ReplyDeleteपहचान खोना जल जाने जैसा ही तो होता है ...
ReplyDeleteपर लकड़ी की तो नियति ही यही है ... भावमय रचना ...
siraf lakdi hi nahi insaan ki bhi yahi niyti hai ......naaswa jee.....
ReplyDeleteजीवन की भावमयी कविता |
ReplyDeleteगहन अनुभूति बेहतरीन सुंदर सहज रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
मुझे ख़ुशी होगी
Gahan artth yukt
ReplyDeleteRamram
बेहद भावप्रवण और गहन रचना
ReplyDeletethanks to all...
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत स्व चिन्हित कराती रचना
ReplyDeletebahut sundar gahan abhivyakti
ReplyDeletebadhai
http://sapne-shashi.blogspot.com