Tuesday, April 2, 2013

अंतत:

          

चूल्हे में सुलग रही लकड़ी से

 पासवाली लकड़ी बोली ....

क्यों .....सुलग रही हो बहना ? 

बेहिचक तुम बोलो ....

गैर नहीं, हूँ अपनी .....भेद दिल के   खोलो .....

 सुलगती हुई लकड़ी तब ...धीरे से बोली ..

ये मत सोचना कि धुओं और ..चूल्हों के बीच 

पहचान मेरी खो गई है ...

 सच तो यही है बहना  कि ...

मेरी यात्रा ..अंतत:पूरी हो गई है ......

 विषम परिस्थितियों में भी मैं ..

.कभी नहीं हारी ....

कर लो हिम्मत तुम भी ..

आएगी तेरी भी बारी .....

 बनते हीं  ज्वाला दसों दिशाएं

 मुझसे मिल रहीं हैं ....

सुलग-सुलग कर आखिर ...

मेरी मंजिल मुझको मिल गई है ...

मंजिल मुझको मिल गई है .....  

13 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना
    बहुत सुंदर

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  2. बहुत ही सुन्दर बेहतरीन रचना.

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  3. अनुपम भाव संयोजन ... बेहतरीन प्रस्‍तुति

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  4. बहुत सुन्दर भाव छिपे है आपकी रचना में ......

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  5. पहचान खोना जल जाने जैसा ही तो होता है ...
    पर लकड़ी की तो नियति ही यही है ... भावमय रचना ...

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  6. siraf lakdi hi nahi insaan ki bhi yahi niyti hai ......naaswa jee.....

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  7. जीवन की भावमयी कविता |

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  8. गहन अनुभूति बेहतरीन सुंदर सहज रचना
    बहुत बहुत बधाई

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
    मुझे ख़ुशी होगी

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  9. बेहद भावप्रवण और गहन रचना

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  10. बहुत खुबसूरत स्व चिन्हित कराती रचना

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  11. bahut sundar gahan abhivyakti

    badhai

    http://sapne-shashi.blogspot.com

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